Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 9

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन |
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत: || 9||

कार्यम्-कर्त्तव्य के रूप में; इति–इस प्रकार; एव–निःसन्देह; यत्-जो कर्म-कर्म; नियतम् निर्दिष्ट; क्रियते-किया जाता है; अर्जुन हे अर्जुन; सङ्गम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; फलम्-फल; च-भी; एव-निश्चय ही; सः-वह; त्यागः-त्याग; सात्त्विकः-सत्त्वगुणी; मतः-मेरे मत से।

Translation

BG 18.9: जब कोई व्यक्ति कर्मों का निष्पादन कर्त्तव्य समझ कर और फल की आसक्ति से रहित होकर करता है तब उसका त्याग सत्त्वगुणी कहलाता है।

Commentary

श्रीकृष्ण अब श्रेष्ठ त्याग का वर्णन करते हैं जिसमें हम फल की कामना किए बिना निरंतर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहते है। इसे वे सर्वोत्कृष्ट त्याग के रूप में चित्रित करते हैं जो सत्त्वगुण में स्थित होकर किया जाता है। आध्यात्मिक उत्थान के लिए त्याग अनिवार्य है। लेकिन समस्या यह है कि त्याग के बारे में लोगों की धारणा सही नहीं है और वे इसे केवल बाह्य कर्मों का त्याग करना ही मानते हैं। ऐसा त्याग पाखण्ड की ओर ले जाता है जिसमें कोई व्यक्ति बाह्य रूप से तो त्याग का चोला ओढ़ता है लेकिन आंतरिक रूप से विषयों का चिंतन करता रहता है। भारत में कई साधु लोग इसी श्रेणी में आते हैं जिन्होंने संसार का त्याग भवत्प्राप्ति के लिए किया। किन्तु उनका मन तब तक विषयों से पूर्णतः विरक्त नहीं हुआ था और इसलिए उन्हें वैराग्य का फल प्राप्त नहीं हुआ। फलस्वरूप उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनके कर्म उन्हें उच्च आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर नहीं कर पाये। यह दोष उनके निर्णय में था। उन्होंने पहले त्याग किया और बाद में आंतरिक विरक्ति का प्रयास किया। इस श्लोक के उपदेश के अनुसार हमें विपरीत विधि का पालन करना है अर्थात् पहले आंतरिक विरक्ति विकसित करनी चाहिए और फिर बाह्य त्याग करना चाहिए।

Swami Mukundananda

18. मोक्ष संन्यास योग

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